कैसे करूँ यकीं ,कि पापा ,
सच ही कहा ये करते थें !
उनके बचपन में दुनियाँ में ,
लोग सुहाने रहते थें !
लोग सुहाने रहते थें ,
मेरे पापा कहते थें -
दूजे का गम बिना स्वार्थ के ,
ख़ुशी-ख़ुशी जो सहते थें !
उन्हे यकीं था ,
फिर से दुनिया ,
वैसी ही हो जाएगी ;
नहीं पता था ,
मेरे बचपन तक कड़वी हो जायगी !
खून के रिश्ते होंगें ऐसे,
नाग-नेवले रहते जैसे!
खुशियों के शो रूम खुलेंगे ;
नहीं मिलेगीं जो बिन पैसे !!
मेरी भरी जवानी मे जब ;
पापा मुझको छोड़ गए !
जाते-जाते मेरे अन्दर ;
इक आशा भी जोड़ गए!
कि मुझको मेरे बच्चो को ;
वो बचपन दिखलाना है ;
जिसमे रंजिश नहीं कहीं ;
खुशियों का ताना-बाना है !
कहां के लाऊ लोग सुहाने ?
खुशियों के वो ताने-बाने ;
हे ईश्वर;
कुछ एसा कर दो -
सबको ही तुम अच्छा कर दो !
नहीं सको पूरी दुनिया तो;
मुझको ही तुम सच्चा कर दो!!
मै जो अच्छा रहा तो दुनिया ;
अच्छी नजर ही आएगी !
मुझमे सच होगा तो दुनिया ;
सच्ची नजर ही आयेगी !!
हे ईश्वर;
दो वर ऐसा कि
कुछ ऐसा कर जाऊं मै;
ज्यादा नहीं तो कम से कम
पापा का बचपन लाऊं मै !!
!
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